लेखक – अनुपमा चतुर्वेदी प्रवासी भारतीयों की अपनी मातृभूमि और स्वदेश में रहते अपने परिवार के विषय में कुछ साझी भावनाएँ और समस्याएँ होती हैं। कर्माधीन हो कर कर्म भूमि में निरंतर कार्य करते रहना संभवतः उनकी मजबूरी हो जाती है। मन अपने वतन की मिट्टी की खुशबू को तरसता है। अपने वृद्ध माँ-बाप की सेवा प्रत्यक्ष रूप से न कर पाने के कारण ग्लानि ह्रदय को जलाती है। अपनी मिट्टी में उपजे फल, सब्जी, साग और उनसे बने पकवान जठराग्नि को हवा देते हैं। अपने रिश्तेदारों की हँसी-ठिठोली, साथ में मनाए उत्सव और त्यौहार बहुत याद आते हैं।
इन समस्याओं का एक हल हमने यह निकला कि हर गर्मियों की छुट्टियों में हम अपने देश, अपने घर लौटते हैं और इन सभी उमड़ती हुई कामनाओं को संतुष्ट करते हैं। घर जाने की तैयारियाँ, सब के लिए उपहार खरीदना, कुछ विदेशों के पकवान, फल-काजू-बादाम-खजूर, चॉकलेट्स इत्यादि भर-भर कर सूटकेस में रखे जाते हैं। वजन की अधिकता के कारण जब तक फ्लाइट बोर्ड नहीं हो जाती तब तक डर के मारे गला सूखता रहता है।
स्वदेश में फिर जो हम सब का स्वागत होता है, गले मिल कर आँखें जो गीली होतीं हैं, सब के पैर छूकर जो आशीर्वाद मिलता है उसका बखान शब्दों में नहीं किया जा सकता। साथ में बैठकर पिया एक गरम चाय का प्याला, हँसी ठहाकों से कमरों का गूँजना और फिर वहीं सोफे पर थकान से लुढ़क जाना, मन को गद्-गद् कर जाता है। साल भर के लिए फिर मन और शरीर दोनों ऊर्जावान हो जाते हैं।
परन्तु अपार खुशियों के यह पल बहुत जल्दी उड़ जाते हैं। फिर वही बोझिल दिलों से संदूकों का बाँधना, पिताजी -माँ का हाथ में पैसे रखना, मंदिर की चौखट पर टीका लगाकर विदा करना, एयरपोर्ट की करुणामय बिदाई ये सब मन को फिर उधेड़ देते हैं। जिसका घर खाली हो जाता है उसे हफ़्तों लग जाते हैं सामान्य होने में और जो विदेश जाता है उसे अपना घर, घर जैसा प्रतीत ही नहीं होता। मिलने-बिछड़ने का यह सिलसिला हर वर्ष ही खुशियाँ और ग़म दोनों ही साथ दे जाता है।
सौ बार मिलना, सौ बार बिछड़नासमय को पकड़ना, कितना कठिन है
अपनों को फिर छोड़ना, कितना कठिन है
आँसुओं को रोक, मुसकुराना कठिन है
पीछे मुड़े बिना, आगे बढ़ जाना कठिन है
हर साल ही तो हम उतावले होते हैं
तैयारियों के ढेर, संदूकों में बँधते हैं
पीढ़ियाँ कई, साथ में बाट जोहतीं हैं
दुलार के मोती, सहेज कर रखते हैं
मिलन के वो पल, बड़े अनुपम होते हैं
खुशियों के बाँध, आँखों से टूटते हैं
सिर पर हाथ, आशीर्वाद से भरा
पैर छूते ही अहम्, धरती में मिलते हैं
फिर जो होते हैं शुरू, सिलसिले बातों के
सारी कायनात ही तो जैसे, बैठी होती है
मेरा सारा संसार यहीं तो है, इस कमरे में
चिंता, ज़िम्मेदारी यहाँ कहाँ होती है
खुशियों के ये पल, कितनी तेज़ दौड़ते हैं
आँखें झपकाने से भी डर लगता है
उनकी लाठी हूँ मैं, कैसे गिर जाऊँ
झुके कन्धों को छोड़ना, कितना कठिन है
कुटुम्बी घोंसलों के पंछी उड़ते ही क्यों हैं
मिलने-बिछड़ने के पल, सच में कठिन हैं
काल-चक्र, भाग्य भी लिखता है सब का
ये पल लिखना,
क्या उसके लिए भी कठिन है?
-अनुपमा चतुर्वेदी
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